चिट्ठी


चिट्ठी कोई
बहुत दिनों से
पेंडिंग ट्रे में पड़ी हुई थी
किसी अकेले प्लेटफार्म पै
स्पेशल ट्रेन पड़ी हो जैसे

अनदेखी अनचाही लावारिस जैसी वो
तरह तरह से सबको पास बुलाया करती
मौसम बना कतारें आकार चले गए थे
एक नज़र भी नहीं किसी ने देखा उसको

पलकों पै आंसू बह बह के सूख गए थे
उधड़े मैले कपडे चिथड़ों से लगते थे

थक कर खुद से कुछ औरों से आखिर उसने
राह ख़ुदकुशी की चुन ली थी अपनी खातिर

जिस्म हुआ बेजान मगर
सिसकियाँ सुनाई
देंगी बरसों तक उस की अब

पेंडिंग ट्रे में पड़ी हुई थी क्या करती वो

One Response to “चिट्ठी”

  1. दर्द जब हद से गुजरता है तो शब्दों की नदियाँ कैसे टूटकर …बहतीं है ….!आपकी बातों के दर्द गहरे होते जाते है !

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