चिट्ठी
चिट्ठी कोई
बहुत दिनों से
पेंडिंग ट्रे में पड़ी हुई थी
किसी अकेले प्लेटफार्म पै
स्पेशल ट्रेन पड़ी हो जैसे
…
अनदेखी अनचाही लावारिस जैसी वो
तरह तरह से सबको पास बुलाया करती
मौसम बना कतारें आकार चले गए थे
एक नज़र भी नहीं किसी ने देखा उसको
बहुत दिनों से
पेंडिंग ट्रे में पड़ी हुई थी
किसी अकेले प्लेटफार्म पै
स्पेशल ट्रेन पड़ी हो जैसे
…
अनदेखी अनचाही लावारिस जैसी वो
तरह तरह से सबको पास बुलाया करती
मौसम बना कतारें आकार चले गए थे
एक नज़र भी नहीं किसी ने देखा उसको
पलकों पै आंसू बह बह के सूख गए थे
उधड़े मैले कपडे चिथड़ों से लगते थे
थक कर खुद से कुछ औरों से आखिर उसने
राह ख़ुदकुशी की चुन ली थी अपनी खातिर
जिस्म हुआ बेजान मगर
सिसकियाँ सुनाई
देंगी बरसों तक उस की अब
पेंडिंग ट्रे में पड़ी हुई थी क्या करती वो
This entry was posted on अगस्त 12, 2011 at 12:20 and is filed under Uncategorized. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.
अगस्त 18, 2011 at 22:39
दर्द जब हद से गुजरता है तो शब्दों की नदियाँ कैसे टूटकर …बहतीं है ….!आपकी बातों के दर्द गहरे होते जाते है !