उदासियां


कुछ ही दिन पहले तो
सपनों की फसलों के
पकने के मौसम थे

कुछ दिन ही पहले तो
मन के हर कोने में
उम्मीदें गाती थीं

कुछ दिन ही पहले तो
बरसाती रातों में
मेघों के मेले थे

बदलें हैं मौसम सब

परबत के ओठों को जैसे सी डाला हो
बाँध कर के रखा हो जैसे हवाओं को
पत्थरों के बुत सी ये कायनात सारी है

अब इतनी चुप्पी है
अब एक ख़ामोशी है
सागर ख़ामोशी में
गुम सुम से बैठें हैं
गहरे अंधेरों की 
परतों में लिपटे ये 
सिसकियों के मेले हैं 

सांस लेते रहना ही सिर्फ एक हरकत है 
सबकुछ मुरझाया है बेजान बेनूर है 

अब ऐसा लगता है 

लंबी सजाओं का 
लंबा सा सिलसिला 
न तो जीने देगा 
न ही मरने देगा 

अब ऐसा लगता है 

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बातें जो कही नहीं 
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One Response to “उदासियां”

  1. उम्मीदों को मरने मत दो….गीत कोई फिर गाओ मौसम सपनों के लेकर अबबाँहों को फैलाओ ………

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